कहानी समीक्षा
ओह भाई, ये 'मालिक' देख के तो सच में लग रहा है जैसे टाइम ट्रैवल कर के 90s में पहुंच गया हूँ—और वो भी बिना किसी मजेदार ट्विस्ट के। राजकुमार राव की नई फिल्म रिलीज़ हो गई है, लेकिन यकीन मानो, स्क्रीन पर आते ही पुरानी बासी कहानी की बदबू आने लगती है। जैसे किसी ने पुराने स्क्रिप्ट के डब्बे से निकाल कर डस्ट झाड़ दी हो।
कास्ट देखो—राजकुमार राव, मानुषी छिल्लर, सौरभ शुक्ला वगैरह—ऐसा लगता है बढ़िया एक्टिंग देखने को मिलेगी। पर कहानी ऐसी घिसी-पिटी है कि आप पहले से ही बोरियत का अचार तैयार कर लो। फिल्म शुरू होते ही दिमाग बोलता है, "भाई, आगे क्या होगा?" और खुद ही जवाब दे देता है, "वही जो हमेशा होता है!"
दीपक नाम का बंदा है, इलाहाबाद में, 90s का माहौल। खेती-बाड़ी करने का मन नहीं, सीधा 'मालिक' बनना है। पिता पर जुल्म होता है, वो बदला लेने निकलता है, और फिर एकदम से शहर का सबसे बड़ा गैंगस्टर। सुना-सुना सा लग रहा है? हां, क्योंकि ये कहानी आप हज़ार बार देख चुके हो।
अब डायरेक्टर पुलकित, जिसने पहले 'बोस: डेड और अलाइव' जैसी बढ़िया सीरीज़ की थी, इस बार पता नहीं किस मजबूरी में 'मालिक' बना डाली। भाई, 'मास' सिनेमा के नाम पर इतना भी दिमाग मत निकाल दो कि दर्शक हॉल में सो जाएं। हीरो के पास सुपरपावर है, सब कर सकता है, पर कहानी में कुछ खास दम नहीं।
सीरियसली, फिल्म में न कोई नया एंगल, न कोई ताज़गी। प्रेजेंटेशन भी ऐसा जैसे किसी ने जबरन खींच-तान के ढाई घंटे पूरे कर दिए हों। और जैसे ही आप सोचते हो कि अब तो बस, खत्म होने वाला है—तभी 'अग्निपथ' वाला गणेश विसर्जन सीन घुसेड़ दिया जाता है, मतलब हद है। ऊपर से डर भी है कि कहीं इसका सीक्वल न आ जाए।
अगर आप वाकई में क्लासिक बॉलीवुड एक्शन, ड्रामा, और वो पुराने जमाने के घिसे-पिटे बदले वाली स्टोरी के मूड में हो, तो हां, देख लो। वरना, मालिक उतना ही इमोशनल कनेक्शन देता है, जितना नया सैमसंग फोन सेल पर खरीदने से मिलता है—मतलब, जरा सा भी नहीं। बस, अगर फिर भी देखनी है तो सिर्फ राजकुमार राव की एक्टिंग के लिए देखो। बाकी, टाइम वेस्ट मत करना—सच में।
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