सरजमीं मूवी रिव्यू हिन्दी में

कहानी

 ‘सरज़मीन’ की कहानी कश्मीर में सेट है, 2006 में। पृथ्वीराज सुकुमारन वाला कर्नल विजय मेनन—भाई, ये बंदा तो देशभक्ति का चलता-फिरता विज्ञापन है। उसके लिए इंडिया से बड़ा कुछ नहीं। वाइफ मेहर और बेटा हरमन के साथ रहता है, लेकिन ‘विजय’ नामक हिंदी फिल्मों की पुरानी परंपरा—हीरो है, सब सही करता है, मगर बाप के रोल में फेल। हरमन को बोलने में दिक्कत है, और इसी वजह से विजय को शर्म आती है। बेचारा हरमन, बाप को खुश करने के लिए जिम-जंपिंग सब करता है, लेकिन बाप है कि मानता ही नहीं।



आठ साल आगे बढ़ते हैं—मतलब कहानी में टाइम जंप है, और इस बीच क्या-क्या होता है, वो बताना मतलब स्पॉयलर देना। अब दोनों आमने-सामने हैं—बाप ड्यूटी के लिए कुछ भी करेगा, बेटा सिर्फ बदला चाहता है। दोनों के इस झगड़े में क्या-क्या पंगा होता है—यही फिल्म है।


अब सलीम-जावेद की ‘शक्ति’ याद है न? वही अमिताभ-बच्चन वाला बाप-बेटा ड्रामा। ‘सरज़मीन’ भी कई जगह उस फिल्म की याद दिलाती है, फर्क बस इतना कि ‘शक्ति’ मजबूत थी, ‘सरज़मीन’ कहानी का आइडिया सुनने में तो तगड़ा लगता है, लेकिन स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन—भैया, दोनों ही डोल रहे हैं।


‘सरज़मीन’ की कहानी कश्मीर में सेट है, 2006 में। पृथ्वीराज सुकुमारन वाला कर्नल विजय मेनन—भाई, ये बंदा तो देशभक्ति का चलता-फिरता विज्ञापन है। उसके लिए इंडिया से बड़ा कुछ नहीं। वाइफ मेहर और बेटा हरमन के साथ रहता है, लेकिन ‘विजय’ नामक हिंदी फिल्मों की पुरानी परंपरा—हीरो है, सब सही करता है, मगर बाप के रोल में फेल। हरमन को बोलने में दिक्कत है, और इसी वजह से विजय को शर्म आती है। बेचारा हरमन, बाप को खुश करने के लिए जिम-जंपिंग सब करता है, लेकिन बाप है कि मानता ही नहीं।



आठ साल आगे बढ़ते हैं—मतलब कहानी में टाइम जंप है, और इस बीच क्या-क्या होता है, वो बताना मतलब स्पॉयलर देना। अब दोनों आमने-सामने हैं—बाप ड्यूटी के लिए कुछ भी करेगा, बेटा सिर्फ बदला चाहता है। दोनों के इस झगड़े में क्या-क्या पंगा होता है—यही फिल्म है।


अब सलीम-जावेद की ‘शक्ति’ याद है न? वही अमिताभ-बच्चन वाला बाप-बेटा ड्रामा। ‘सरज़मीन’ भी कई जगह उस फिल्म की याद दिलाती है, फर्क बस इतना कि ‘शक्ति’ मजबूत थी, ‘सरज़मीन’ कहानी का आइडिया सुनने में तो तगड़ा लगता है, लेकिन स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन—भैया, दोनों ही डोल रहे हैं।


फिल्म की ओपनिंग तो बढ़िया है, लेकिन फिर कन्फ्युज़न का भूत सवार हो जाता है। खुद फिल्म को ही नहीं पता—ये बाप-बेटे की कहानी है या कश्मीर और आतंकवाद की। कश्मीर बैकड्रॉप है, लेकिन फिल्म खत्म होने तक भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि कहानी वहां सेट है या कहीं और। यूनिवर्सल थीम है, लेकिन कहानी में वो ‘कनेक्ट’ मिसिंग है। मतलब, 2 घंटे 17 मिनट बाद भी, न बाप के लिए कुछ फील होता है, न बेटे के लिए। दोनों के साथ सफर में शामिल ही नहीं हो पाते।


शुरुआती आधा घंटा एंगेजिंग है—फिर फिल्म की पकड़ छूट जाती है। कहानी को जबरन ड्रामेटिक बनाने की कोशिश, स्लो मोशन, फालतू के शॉट्स—ये सब क्यों? डायरेक्टर कायोज़े ईरानी हैं, जिनके पापा बोमन ईरानी ने इसी साल ‘द मेहता बॉयज़’ बनाई थी—अब वहां की सिनेमैटोग्राफी देखो, और यहां की फ्लैट फील। ‘सरज़मीन’ में कैमरा बस किरदार पर टिका है, बाकि फ्रेम में हवा भर दो। विजुअली कुछ नहीं मिलता।

Casting & Performance 

परफॉर्मेंस की बात करें तो कास्ट को बमुश्किल स्पेस मिलता है। सीन में केमिस्ट्री बनने लगती है, तभी या तो बैकग्राउंड म्यूजिक कान फोड़ देता है, या गाना घुस जाता है। पृथ्वीराज, काजोल, इब्राहिम—सबका काम ठीक-ठाक है। कुछ खास बोल नहीं सकते। हिंदी फिल्मों में गाने कहानी को आगे ले जाते हैं, लेकिन यहां? भाई, इधर गाने जबरन घुसे हैं, नेरेटिव हिला डाला।



 फिल्म को ही नहीं पता—ये बाप-बेटे की कहानी है या कश्मीर और आतंकवाद की। कश्मीर बैकड्रॉप है, लेकिन फिल्म खत्म होने तक भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि कहानी वहां सेट है या कहीं और। यूनिवर्सल थीम है, लेकिन कहानी में वो ‘कनेक्ट’ मिसिंग है। मतलब, 2 घंटे 17 मिनट बाद भी, न बाप के लिए कुछ फील होता है, न बेटे के लिए। दोनों के साथ सफर में शामिल ही नहीं हो पाते।


शुरुआती आधा घंटा एंगेजिंग है—फिर फिल्म की पकड़ छूट जाती है। कहानी को जबरन ड्रामेटिक बनाने की कोशिश, स्लो मोशन, फालतू के शॉट्स—ये सब क्यों? डायरेक्टर कायोज़े ईरानी हैं, जिनके पापा बोमन ईरानी ने इसी साल ‘द मेहता बॉयज़’ बनाई थी—अब वहां की सिनेमैटोग्राफी देखो, और यहां की फ्लैट फील। ‘सरज़मीन’ में कैमरा बस किरदार पर टिका है, बाकि फ्रेम में हवा भर दो। विजुअली कुछ नहीं मिलता।

एक्टिंग 

परफॉर्मेंस की बात करें तो कास्ट को बमुश्किल स्पेस मिलता है। सीन में केमिस्ट्री बनने लगती है, तभी या तो बैकग्राउंड म्यूजिक कान फोड़ देता है, या गाना घुस जाता है। पृथ्वीराज, काजोल, इब्राहिम—सबका काम ठीक-ठाक है। कुछ खास बोल नहीं सकते। हिंदी फिल्मों में गाने कहानी को आगे ले जाते हैं, लेकिन यहां? भाई, इधर गाने जबरन घुसे हैं, नेरेटिव हिला डाला।

निष्कर्ष 

फिल्म देखते-देखते एक पॉइंट पर बंदा सोचता है—अब क्या? मेकर्स भी शायद यही सोच रहे थे, तभी लास्ट के आधे घंटे में एक ट्विस्ट फेंक दिया। कोई तगड़ी चीज नहीं, बस फॉर्मेलिटी लगती है। इब्राहिम अली खान ने मेहनत की, रोल के मुताबिक काम किया, मगर फिल्म ने खुद उन्हें उभरने ही नहीं दिया। कुल मिलाकर, ‘सरज़मीन’ देखनी है तो टाइम पास के मूड में देखो, वरना बहुत कुछ मिस नहीं करोगे।

Sarzameen 

Director: Kayoze Irani

Cast: Prithviraj Sukumaran, Kajol, Ibrahim Ali Khan

Rating: 1.5 Stars  

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